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मैं कम बोलता हूं, पर कुछ लोग कहते हैं कि जब मैं बोलता हूं तो बहुत बोलता हूं. मुझे लगता है कि मैं ज्यादा सोचता हूं मगर उनसे पूछ कर देखिये जिन्हे मैंने बिन सोचे समझे जाने क्या क्या कहा है! मैं जैसा खुद को देखता हूं, शायद मैं वैसा नहीं हूं....... कभी कभी थोड़ा सा चालाक और कभी बहुत भोला भी... कभी थोड़ा क्रूर और कभी थोड़ा भावुक भी.... मैं एक बहुत आम इन्सान हूं जिसके कुछ सपने हैं...कुछ टूटे हैं और बहुत से पूरे भी हुए हैं...पर मैं भी एक आम आदमी की तरह् अपनी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट नही हूं... मुझे लगता है कि मैं नास्तिक भी हूं थोड़ा सा...थोड़ा सा विद्रोही...परम्परायें तोड़ना चाहता हूं ...और कभी कभी थोड़ा डरता भी हूं... मुझे खुद से बातें करना पसंद है और दीवारों से भी... बहुत से और लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं बहुत अकेला हूं... मैं बहुत मजबूत हूं और बहुत कमजोर भी... लोग कहते हैं लड़कों को नहीं रोना चाहिये...पर मैं रोता भी हूं...और मुझे इस पर गर्व है क्योंकि मैं कुछ ज्यादा महसूस करता हूं!आप मुझे nksheoran@gmail.com पर ईमेल से सन्देश भेज सकते हैं.+919812335234,+919812794323

Saturday, December 18, 2010

प्रदर्शन छोड़िए, हमारी खेल भावना तो देखिए श्रीमान्

और लो साहब, दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही टीम पहले ही टेस्ट में ढह सी गई। हालांकि अभी दूसरी पारी बाकी है। लेकिन दिग्गज तू आया मैं चल की तरह एक के बाद एक चल ही दिए। क्यों भई...टीम इंडिया नहीं जानती क्या कि पूरा देश आंखें दताए बैठा है टीवी के सामने...बस इन्हीं मौकों पर देश बड़ा कसकर आध्यात्मिक हो जाता है। एक लौ सी लगा लेता है...लागी तुमसे मन की लगनटाइप।



खेल तो बाबू अच्छा ही रहे थे...एक हताशा सी तारी हो जाती है देश पर, गुरू अभी लक्ष्मण ठोकेगा देखना...फिर भी एक उम्मीद कायम रहती है। खैर, खेल छोड़िए, इस खेल के पीछे छुपी खेल की आध्यात्मिकता पर चलिए एक नजर डालते हैं...टीम खराब खेल रही है तो क्या तुम क्यों आशाएं लगाए हो...फिर देखो तो आशाएं खुद लगाते हो बोझ हम पर डाल देते हो...कितना बोझ उठाएं....अपेक्षाओं का, सालभर तो दनादन ठोकते रहते हैं रन देश में इतने से मन नहीं भरता आपका कि दक्षिण अफ्रीका की सीरिज देखने दते हो.. ये नहीं देखते कि हम पर कितना बोझा है...






इस विचार के साथ देश दुखी हैं...खिलाड़ी दुखी हैं... दोनों ही गमगीन रहने के खेल में लगे हैं। हालांकि खिलाड़ी तो फिर भी 10-12 एड, कुछ रियलटी शो, एकाधा फैशन शो में रैंप पर चलने जैसा कुछ करके अपने गम भुलाएंगे। लेकिन देशवासी फालतू के चिंतन में लगातार जुटे रहेंगे। खिलाड़ी से सीख नहीं लेंगे जो ऐसी स्थति आने या हारने के कुछ देर बाद ही भूल जाते हैं। हार की पीड़ा को सीने से चिपकाए गली-चौराहे-पान की दुकानों पर चर्चान्वित नहीं रहते।






लेकिन भिया मेरा तो मानना है कि हमें हार से इतर खेल भावना पर विचार करना चाहिए। हमारे खिलाड़ी कितने सीधे-सच्चे होते हैं। देश के लिए खेलते समय परमार्थ की कैसी जबर्दस्त भावना दिखाते हैं। बैटिंग करते समय सोचते हैं कि ले भाई, तेरी खुशी मेरे जल्दी आउट होने में है, तो कर ले मुझे आउट, बस खुश। हालांकि गेंद भी तो पता नहीं सामने वाले कितनी तेज फेंकते हैं।






गोली सी दनदनाती मुंह के सामने से निकल गई अभी मुंह पे चोट लग जाती तो अगला विज्ञापन...और फिर देखो तो हाथ की हड्डियां जाने कहां से ऑर्डर देकर बनवाते हैं। हम तो पता नहीं इतनी तेज गेंदें फेंक दें, तो चौथ ओवर के बाद ठीक से स्ट्रेचर पर भी लेट पाएंगे कि नहीं। उधर, मैदान में खिलाड़ी भी लगातार एड मनी का जोड़-घटाना करता रहता है। प्रायोजकों की अपेक्षाओं की चिंता करता रहता है। इसी प्रताप से तो कई टूटे-फूटे पड़े हैं। इसके बावजूद भी भावना देखिए हमारेवालो की, सारा जोर सामने वाले को खुश रखने में लगाए रहते हैं।






खिलाड़ियों की विनम्रता पर भी अलग से नजर डालिए आप, मजाल है कि कभी इस बात का एहसान जताएं। आपके ज्यादा जोर देने पर ही चट्टान जैसी पिच पर दोष लगाना शुरू करते हैं कि नहीं?, ज्यादा पूछने पर ही तो अपने कोच पर आरोप मंढते हैं कि नहीं? बहुत ज्यादा ही सवाल किए जाते हैं तभी ना सही बताते हैं कि क्या करें वो शॉर्ट पिच गेंदें डाल रहा था, उसकी मेहनत का सम्मान तो करना ही था। फील्डर भी कुछ ज्यादा ही जुझारू दिख रहा था।






मैदान पर लोट-लोट कर बॉल रोक रहा था। कई बार समझाया भी कि क्यों भाई ऐसा क्या कि जान देते पड़े हो, पेंट भी नया बनवाया दिखता है, लेकिन इतने समझाने का असर भी नहीं, तो क्या करें, फिर मजबूरी में उसका भी सम्मान रखना पड़। ऐसे शॉट लगाने पड़े कि उसे गेंदों के लिए मैदान पर भूलुंठित होने की जरूरत ही ना पड़े, सारे शॉट सीधे उसके हाथ में जाएं। उसका सम्मान न करें, रन बनाएं, ऐसा हमसे न हो पाएगा। तो ऐसी है हमारे वालों की उदार भावना।






ऐसे ही सामनेवालो की बल्लेबाजी के दौरान हम नितांत दार्शनिक हो जाते हैं। शत्रु पक्ष का समझकर भी तेरी तरफ मित्रवत् गेंद फेंकी है-का भाव रखते हैं। (हालांकि जोर तो पूरा लगाया था, इससे ज्यादा तेज गई ही नहीं) फिर गेंद फेंक दी है, तू कर ले मनमानी, जैसी उदारता भी रखते हैं। अब सामने वाला निर्ममता से प्रहार करता रहता है, तूफानी शतक ठोक देता है...तो क्या करें।






कई बार धीरे से उसके पास जाकर समझाते भी हैं, अब बस कर रे, हमारी आईपीएल की टीम में आने के लिए इतना ही काफी है। और अगर पहले से है तो भी समझाते हैं कि बढ़ावा देंगे रे तेरा मेहनताना अगली बार जरा सबर तो कर ले....लेकिन कई बार हमारी अंग्रेजी या उसकी श्रवण शक्ति कमजोर होने के कारण यह बात वो ठीक-ठाक तरीके से शायद समझ नहीं पाता है, और रन ठोकता रहता है।






हम तो पूरे प्रयास करते हैं, अब हमारी किस्मत से वो बहरा निकल आया, क्या करें जी। और ऐसे ही ये इतने मंहगे नए पैंट क्या बॉल घिसने या जमीन पर लोटने के लिए बनवाए हैं। अब क्या अंतरराष्ट्रीय मैचों के स्तर पर आकर भी वो गंवारों जैसा जमीन पर ऊंचे-नीचे कूदते रहें। नईं, आप ही बताओ? अरे, वो बात अलग थी, जब देश की टीम में आना था। तब पैंट सस्ता था, इच्छाशक्ति मजबूत थीं।






ऊपर से देश के लिए खेलने का जज्बा अलग हिलोरे मार रहा था। अब क्या यहां आकर भी मैचों जैसा गंवारूपना करते दिखें। टीवी पर ये सब करते अच्छा नहीं लगता भिया। तो इस तरह से इतने गहन दर्शन के तहत हमारे वाले उन्हें जिता देते हैं। आप फिजूल में टीम की हार के गम में गलते रहते हो।

Friday, December 17, 2010

अंग्रेज चले गए जी. बी. रोड छोड़ गए

गार्सटिन बैसन रोडअंग्रेज कलेक्टर के नाम रखी इस सड़क की ख्याति जी. बी. रोड के नाम से अधिक है। लाल किला, कुतुबमीनार, जंतर मंतर, चांदनी चौक, कनॉट प्लेस की तरह यह भी दिल्ली की पहचान का पुराना और अहम हिस्सा है। उसकी पुरानी रवायत का एक बदनाम सफा जिसके बारे में जानते तो सब हैं मगर बात कोई नहीं करना चाहता।
अब देखिए पहचान बदलने के खयाल से सरकार ने सोचा नाम बदल दिया जाए। नाम रखा गया श्रद्धानंद मार्ग। पैंतालीस साल हो गए नाम आज तक लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा। यह अलग बात है कि सड़क के निशान, दुकानों के नामपट्ट सब इसका पता श्रद्धानंद मार्ग ही बताते हैं। लेकिनकलेक्टर गार्सटिन साहब जरूर नेकदिल इंसान रहे होंगे, तभी तो आज तक उनका नाम लोगों की जुबान से नहीं उतरा।
अंग्रेज चले गए रोड छोड़ गए
जी. बी. रोड की तफ़रीह सही सैर करनी हो तो रिक्शे की सवारी ही सबसे शान की सवारी है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन या नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन के बाहर निकलकर कमला मार्केट चौक पर आइए। दस रुपए देकर रिक्शे पर बैठिए खारी बावली के लिए, मसाले, ड्राई फ्रूट के बडे थोक बाज़ार के लिए। बीच में करीब तीन किलोमीटर लंबी सड़क आती है जो जी. बी. रोड मेरा मतलब है श्रद्धानंद मार्ग कहलाती है। हार्डवेयर के इस मशहूर मार्केट में आगे चलकर बीस इमारतें आती हैं, जिनकी पहली और दूसरी मंजिल के तकरीबन सौ कोठों(अब ९६ हैं, कुछ साल पहले तक इन कोठों की संख्या १०८ थी) के कारण ही जी. बी रोड की असली शोहरत और बदनामी है। शाम ढलने के बाद नीचे दुकानों के शटर गिरने लगते हैं, ऊपर की मंजिलों के झरोखे रोशन होने लगते हैं। झरोखों से इशारे करती लड़कियाँ बता देती हैं जी. बी. रोड की रुसवाई का चर्चा क्यों है। शाम के बाद कमला मार्केट चौक से खारी बावली तक की गई यात्रा याद रह जाती हैं।
रिक्शेवाले इस रोड की समझ लीजिए जान हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, कमला मार्केट, नया बाजार, सदर बाज़ार सब मिलाकर इधर करीब एक हजार रिक्शेवाले होंगे। वैसे जबसे चांदनी चौक में रिक्शे का चलना बंद हुआ है तबसे इन इलाकों में रिक्शेवालों की तादाद बढ़ गई है। जी. बी. रोड के जीवन से गहरा रिश्ता है इन रिक्शेवालों का है। शाम ढलने के बाद ज्यादातर कस्टमर इन पर सवार होकर ही आते हैं। दिन के वक्त इन कोठेवालियों का सबसे बड़ा सहारा भी रिक्शेवाले ही बनते हैं। यह दिलचस्प है कि औरतों के इतने बड़े बाजार होने के बावजूद यहाँ एक ब्यूटी पार्लर तक नहीं है। दिन के वक़्त ऊपर रहने वाली औरतें उतरती हैं और चुपचाप इन्हीं रिक्शों पर सवार होकर पुरानी दिल्ली के दूसरे बाजारों में सौदा-सुलुफ करने के लिए निकल जाती हैं। उन बाजारों में जहाँ उनको कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता। आसपास के उन दुकानों, बाजारों में वे नहीं दिखाई देती हैं जो उनके ही दम से चल रही हैं। सब्जी तक खरीदने के लिए वे सीताराम बाजार जाती हैं। कम से कम चार किलोमीटर दूर। एक हनुमान मंदिर, चार मस्जिद होने के बावजूद ये कोठेवालियाँ इबादत के लिए भी यहाँ के इबादतखानों में नहीं जातीं। उनके भगवान भी यहाँ से दूर ही बसते हैं
वैसे बाजार सीताराम से दुकानदारी के उनके इस रिश्ते की कहानी पुरानी दिल्ली वाले दूसरी ही बताते हैं। बीसवीं शताब्दी की आजादी के कुछ साल पहले तक आज कागज़ वगैरह के बड़े बाजार के रूप में प्रसिद्ध चावड़ी बाजार में तवायफ़ों का कोठा था। आज भी चावड़ी बाजार के ऊपरी मंजिलों के झरोखों को देखकर सहसा जी. बी. रोड के कोठों की याद जाती है। वैसे ही झरोखे, वैसी ही झिरियाँ। तब सीताराम बाजार के पास होने से वहाँ की तवायफ़ों को सीताराम बाजार में जाने की आदत पड़ गई। बाद में सरकार ने जिस्म के इस बाज़ार को आबादी से दूर थोक बाजारों के इस गोल में लाकर बसा दिया। पचास-साठ साल हो गए, पीढ़ियाँ आईं-गईं, लेकिन सीताराम बाजार जाने की आदत नहीं गई। आपने भी सुना होगा पुरानी आदतें जाती नहीं हैं।
बाहर से आने वाले यहाँ गर्दन ऊपर उठाकर चलते हैं, लेकिन यहाँ की कोठेवालियाँ रिक्शे पर बैठकर गर्दन झुकाए गुजर जाती हैं।अपनेमुहल्लेवालों से शायद शर्म आती हो। कई बार जब कोई लड़की कोठे से भागती है तो अक्सर इन्हीं रिक्शों पर सवार होकर निकल जाती है। पिछले दिनों जब अखबार में यह खबर पढ़ी कि जी. बी. रोड के इलाके में दो पुलिस वालों की हत्या हो गई और पुलिस वालों ने हत्यारों की तलाश में सारे इलाके को घेर लिया था। एक अखबार में लिखा था पुलिसवालों का झगड़ा कोठा नंबर ६४ में हुआ था। कोठा नंबर ६४ का जिक्र पढ़कर पिछले साल की रिक्शा यात्रा और रिक्शेवाले से हुई बात याद गईसबसे नामी कोठा है ६४ नंबर। वहाँ तो एसी भी है, विदेशी कस्टमर आते हैं। वैसे ज्यादा काले विदेशी ही होते हैंअफ्रीका वाले। वहाँ का रेट भी हाई है! कोठा नंबर ६४ जी. बी. रोड के हाई-फाई कल्चर का प्रतीक है।
असल में बीस इमारतों और ९६ कोठों वाले इस बाजार में अमीर-गरीब की खाई है। कमला मार्केट की तरफ रिक्शे पर करीब आधी दूरी तय करने के बाद हनुमान मंदिर आता है। कोठा नंबर ६४ उसके बाद पड़ता है। हनुमान मंदिर के दूसरी तरफ की कोठेवालियों की ठसक कुछ ज्यादा है क्योंकि उनमें ज्यादातर गोरी लड़कियाँ धंधा करती हैंजी. बी. रोड पर धंधे के लिए लाई जाने वाली लड़कियों में बड़ी तादाद नेपाल, आसाम से आई लड़कियों की है, उनमें से अधिकतर हनुमान मंदिर के दूसरी ओर के कोठों में पाई जाती हैं। उनकी तलाश में इधर शहर के रईसजादों की आमदरफ्त भी लगी रहती है। रिक्शे पर बैठकरमंदिर के इधर वाली बाइयों का रेट कम से कम २०० तक भी हो सकता है तो मंदिर के उधर की गोरी लड़कियाँ एक-एक ग्राहक से दो-दो हजार तक वसूल लेती हैं। कोठा नंबर ६४ से ध्यान आया करीब दो साल पहले पुलिस ने जी. बी. रोड पर छापा मारकर करीब दो सौ कमसिन लड़कियों को मुक्त करवाया था। सबसे ज्यादा ४० नेपाली लड़कियाँ कोठा नंबर ६४ से मुक्त करवाई गई थीं। तब एक रिक्शेवाले ने ही इलाके में काम करने वाले एक एनजीओ को उस कोठे में रहने वाली कम उम्र की लड़कियों के बारे में बताया था, शक्तिवाहिनी नामक उस संस्था के दबाव पर ही पुलिस ने कोठों पर छापा मारा था।
इंटरनेट और मोबाईल फोन के इस दौर में ज़िस्म का व्यापार भी हाईटेक हो गया है। जी. बी. रोड पर भी इसका असर पड़ रहा है। यहाँ धीरे-धीरे रिक्शेवालों की मिल्कियत खत्म होती जा रही है। अब ऑटोरिक्शा की आमद इस इलाके में बढ़ने लगी है। कोठेवालियाँ मोबाईल पर कस्टमर से सौदा तय करती हैं और बन-संवरकर ऑटो में सवार होकर किसी अनजान स्थान के लिए निकल पड़ती हैं। अब यहाँ आना ग्राहकों के लिए पहले जैसा निरापद नहीं रहा। जी. बी. रोड गांजा, चरस, स्मैक जैसे नशीले पदार्थों के अवैध व्यापार का भी बड़ा सेंटर बन चुका है। इसकी वजह से यहाँ अपराध की घटनाएँ बढ़ने लगी हैं। पहले कस्टमर के जान-माल का ध्यान कोठेवालियाँ और उनके दलाल रखते थे क्योंकि उनसे ही उनकी रोजी-रोटी चलती है। अब दलाल ही उनको लूटने लगे हैं। इसलिए लोग यहाँ आने से घबड़ाने लगे हैं। लड़कियों के लिए भी बाहर जाना फायदे का सौदा लगने लगा है। एसी रूम मिलता है, अच्छा पैसा मिलता है। इसलिए उनके व्यापार को अब रिक्शेवालों से अधिक अधिक ऑटोवाले भइया भाने लगे हैं। वे ही उनके लिए कस्टमर भी तय करते हैं, उनको गाड़ी में बिठाकर ले जाते हैं, फिर वापस भी छोड़ जाते हैं।
लेकिन ऑटो में वह मज़ा कहाँ जो रिक्शे में है। रिक्शे पर बैठकर तो खुला आसमान दिखाई देता, झरोखे से झांकती, इशारे करती लड़कियाँ भी। रिक्शे पर बैठकर यहाँ से गुजरने का खयाल बुरा नहीं हैशाम के बादजब हार्डवेयर बाजार बंद होने लगता हैनशेड़ियों, भिखमंगों, पुजारियोंव्यापारियों, ठेलेवाले, चाट-खोमचेवालों की भीड़ और उनके बीच टुनटुन घंटी बजाकर जगह बनाता रिक्शा

Saturday, December 11, 2010

शादी के बाद...

अभी शादी का पहला ही साल था,
ख़ुशी के मारे मेरा बुरा हाल था,
खुशियाँ कुछ यूं उमड़ रहीं थी,
की संभाले नही संभल रही थी..

सुबह सुबह मैडम का चाय ले कर आना
थोडा शरमाते हुये हमें नींद से जगाना,
वो प्यार भरा हाथ हमारे बालों में फिरना,
मुस्कुराते हुये कहना की...

डार्लिंग चाय तो पी लो,
जल्दी से रेडी हो जाओ,
आप को ऑफिस भी है जाना...

घरवाली भगवान का रुप ले कर आयी थी,
दिल और दिमाग पर पूरी तरह छाई थी,
सांस भी लेते थे तो नाम उसी का होता था,
इक पल भी दूर जीना दुश्वार होता था...

५ साल बाद........

सुबह सुबह मैडम का चाय ले कर आना,
टेबल पर रख कर जोर से चिल्लाना,
आज ऑफिस जाओ तो मुन्ना को
स्कूल छोड़ते हुए जाना...

सुनो एक बार फिर वोही आवाज आयी,
क्या बात है अभी तक छोड़ी नही चारपाई,
अगर मुन्ना लेट हो गया तो देख लेना,
मुन्ना की टीचर्स को फिर खुद ही संभाल लेना...

ना जाने घरवाली कैसा रुप ले कर आयी थी,
दिल और दिमाग पर काली घटा छाई थी,
सांस भी लेते हैं तो उन्ही का ख़याल होता है,
अब हर समय जेहन में एक ही सवाल होता है...

क्या कभी वो दिन लौट के आएंगे,
हम एक बार फिर कुंवारे हो जायेंगे.... ...!

डराओ और कमाओ

समाचार चैनलों को दर्शकों को डराने में बड़ा मजा आता है. उन्हें लगता है कि जितना बड़ा डर, उतने अधिक दर्शक. जितना टिकाऊ डर, उतने देर चैनल से चिपके दर्शक. कहते भी हैं: “इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स.” चैनलों की दुनिया में इस कथन का सिक्का अब भी उतना ही चलता है, जितना पहले चलता था. नतीजा हम सबके सामने है. चैनल हमेशा किसी ऐसी ‘खबर’ की तलाश में रहते हैं जिससे दर्शकों को डराया और चैनल से चिपकाया जा सके. खासकर प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप, आतंकवादी हमलों के प्रति उनका ‘उत्साह’ देखते ही बनता है.

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें हर बाढ़, भूकंप या आतंकवादी हमला एकसमान उत्साहित करता है. अगर वह बाढ़, भूस्खलन, आतंकवादी हमला दिल्ली या मुंबई या पश्चिमी-उत्तरी भारत से जितनी दूर होगी, उसके प्रति चैनलों का उत्साह उसी अनुपात में कम होता चला जाता है. लेकिन अगर वह आपदा बड़े टी.आर.पी शहरों या दिल्ली-मुंबई जैसे महा(टी.आर.पी)नगरों पर आने को हो या आ जाए तो चैनलों की उत्तेजना और उत्साह का जैसे ठिकाना नहीं रहता है.

चैनलों के इस रवैये के कारण कई बार ऐसा लगता है जैसे वे विपदाओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं. उस गिद्ध की तरह जो अकाल का इंतज़ार करता रहता है ताकि उसका महाभोज हो सके. याद कीजिये, ‘पीपली लाइव’ में अकाल के बीच एक किसान की आत्महत्या की ‘खबर’ दिखाने के लिए गिद्धों की तरह पीपली गांव में उतरे चैनलों को जो नाथ जैसे किसानों के दुख-दर्द से ज्यादा लाइव आत्महत्या दिखाने को बेताब थे. हालांकि वह फिल्म थी और बहुतों को लग रहा था कि उसमें चैनलों का अतिरेकपूर्ण चित्रण किया गया है.

लेकिन शायद अब अतिरेक और चैनल एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि चैनलों ने पिछले दिनों जैसे ही दिल्ली में “बाढ़” की ‘संभावना’ देखी, वे उसे भुनाने के लिए यमुना में कूद पड़े. स्टार राजनीतिक रिपोर्टरों से लेकर नत्थू-खैरे रिपोर्टर तक यमुना में उतर पड़े. कोई लाइफ जैकेट और नाव के साथ डूबती दिल्ली की खोज-खबर ले रहा था तो कोई घुटने भर और कोई कमर भर पानी में खड़ा होकर चढ़ती यमुना की पल-पल की खबर देने लगा. गोया खतरे का निशान उनके साढ़े पांच फुट के शरीर पर बना हो.

बिल्कुल फ़िल्मी दृश्य. वही नाटकीयता, सस्पेंस (आपके घर से कितना दूर है पानी), रिपोर्टरों की उत्तेजना और थरथराहट से फटी जा रही आवाज़, कैमरे के कमाल से वास्तविकता से कहीं ज्यादा उफनती यमुना और रही-सही कसर पूरा करते स्टूडियो में बैठे भाषा के खिलाड़ी- ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली में प्रलय आ गई हो. हालांकि बाढ़ तो न आनी थी और न आई लेकिन चैनलों ने अपनी उत्तेजना और उत्साह में दिल्ली को बाढ़ में डुबोने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी.

जाहिर है कि चैनल दिल्ली को डूबाने वाली बाढ़ लाने में इसलिए लगे थे क्योंकि वे लोगों को डराकर अधिक से अधिक दर्शक जुटाने और उसकी टी.आर.पी को भुनाने की कोशिश कर रहे थे. असल में, समाचार चैनलों को सबसे आसान और सस्ता तरीका यह लगता है कि लोगों को किसी भी तरह से डराकर चैनल से चिपकाये रखा जाए. इसके लिए वे कई बार कुछ हद तक वास्तविक और आम तौर पर बहुत बनावटी खतरे गढ़ते हैं लेकिन मकसद दर्शकों को आश्वस्त करना नहीं बल्कि उनमें और अधिक घबराहट, बेचैनी और खौफ पैदा करना होता है.

दरअसल, कई शोध सर्वेक्षणों और विशेषज्ञों का मानना है कि आमतौर पर समाचारों के कम लेकिन निश्चित दर्शक होते हैं लेकिन किसी राजनीतिक, सामुदायिक या प्राकृतिक संकट के समय दर्शकों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है. खासकर अगर वह संकट सीधे दर्शकों के खुद और अपने करीबियों और उनके जीवन और भविष्य से जुड़ा हो तो उनकी उत्सुकता, बेचैनी, संलग्नता और सक्रियता बहुत बढ़ जाती है. इसका सीधा कारण लोगों के मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है.

माना जाता है कि लोग समाचार इसलिए भी पढ़ते-देखते-सुनते है क्योंकि वह हमारे अंदर बैठे “अज्ञात के भय” से निपटने में मदद करता है. समाजशास्त्रियों के मुताबिक सभ्यता की शुरुआत से ही लोग समाचारों में इसलिए दिलचस्पी लेते रहे हैं क्योंकि यह उन्हें अपने सीधे प्रत्यक्ष अनुभव से इतर “अज्ञात के भय” से निगोशिएट करने में मदद करता है. लोग हर उस खबर को जानना चाहते हैं जो किसी भी रूप में चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष उन्हें और उनके करीबियों को प्रभावित कर सकती है.

लेकिन चैनलों की इस “डराओ और उससे कमाओ” नीति का पहला शिकार तथ्य होते हैं. इसमें तथ्यों और वास्तविकता के बजाय मनमुताबिक तथ्य और वास्तविकता गढ़ने की कोशिश की जाती है. तथ्यों और वास्तविकता को हमेशा परिप्रेक्ष्य और उसकी पृष्ठभूमि से काटकर पेश किया जाता है. इस सबकी कीमत अंततः उनके दर्शक ही चुकाते हैं. कारण, ऐसी खबरों से अफवाहों को पैर मिल जाते हैं. लोग घबराहट में उल्टे-सीधे फैसले करने लगते हैं. राहत और बचाव में लगी एजेंसियों के लिए अपना काम करना मुश्किल होने लगता है.

लेकिन इधर अच्छी बात हुई है कि लोग चैनलों के इस खेल को समझने लगे हैं. अब बारी चैनलों के डरने की है.