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मैं कम बोलता हूं, पर कुछ लोग कहते हैं कि जब मैं बोलता हूं तो बहुत बोलता हूं. मुझे लगता है कि मैं ज्यादा सोचता हूं मगर उनसे पूछ कर देखिये जिन्हे मैंने बिन सोचे समझे जाने क्या क्या कहा है! मैं जैसा खुद को देखता हूं, शायद मैं वैसा नहीं हूं....... कभी कभी थोड़ा सा चालाक और कभी बहुत भोला भी... कभी थोड़ा क्रूर और कभी थोड़ा भावुक भी.... मैं एक बहुत आम इन्सान हूं जिसके कुछ सपने हैं...कुछ टूटे हैं और बहुत से पूरे भी हुए हैं...पर मैं भी एक आम आदमी की तरह् अपनी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट नही हूं... मुझे लगता है कि मैं नास्तिक भी हूं थोड़ा सा...थोड़ा सा विद्रोही...परम्परायें तोड़ना चाहता हूं ...और कभी कभी थोड़ा डरता भी हूं... मुझे खुद से बातें करना पसंद है और दीवारों से भी... बहुत से और लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं बहुत अकेला हूं... मैं बहुत मजबूत हूं और बहुत कमजोर भी... लोग कहते हैं लड़कों को नहीं रोना चाहिये...पर मैं रोता भी हूं...और मुझे इस पर गर्व है क्योंकि मैं कुछ ज्यादा महसूस करता हूं!आप मुझे nksheoran@gmail.com पर ईमेल से सन्देश भेज सकते हैं.+919812335234,+919812794323

Friday, December 17, 2010

अंग्रेज चले गए जी. बी. रोड छोड़ गए

गार्सटिन बैसन रोडअंग्रेज कलेक्टर के नाम रखी इस सड़क की ख्याति जी. बी. रोड के नाम से अधिक है। लाल किला, कुतुबमीनार, जंतर मंतर, चांदनी चौक, कनॉट प्लेस की तरह यह भी दिल्ली की पहचान का पुराना और अहम हिस्सा है। उसकी पुरानी रवायत का एक बदनाम सफा जिसके बारे में जानते तो सब हैं मगर बात कोई नहीं करना चाहता।
अब देखिए पहचान बदलने के खयाल से सरकार ने सोचा नाम बदल दिया जाए। नाम रखा गया श्रद्धानंद मार्ग। पैंतालीस साल हो गए नाम आज तक लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा। यह अलग बात है कि सड़क के निशान, दुकानों के नामपट्ट सब इसका पता श्रद्धानंद मार्ग ही बताते हैं। लेकिनकलेक्टर गार्सटिन साहब जरूर नेकदिल इंसान रहे होंगे, तभी तो आज तक उनका नाम लोगों की जुबान से नहीं उतरा।
अंग्रेज चले गए रोड छोड़ गए
जी. बी. रोड की तफ़रीह सही सैर करनी हो तो रिक्शे की सवारी ही सबसे शान की सवारी है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन या नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन के बाहर निकलकर कमला मार्केट चौक पर आइए। दस रुपए देकर रिक्शे पर बैठिए खारी बावली के लिए, मसाले, ड्राई फ्रूट के बडे थोक बाज़ार के लिए। बीच में करीब तीन किलोमीटर लंबी सड़क आती है जो जी. बी. रोड मेरा मतलब है श्रद्धानंद मार्ग कहलाती है। हार्डवेयर के इस मशहूर मार्केट में आगे चलकर बीस इमारतें आती हैं, जिनकी पहली और दूसरी मंजिल के तकरीबन सौ कोठों(अब ९६ हैं, कुछ साल पहले तक इन कोठों की संख्या १०८ थी) के कारण ही जी. बी रोड की असली शोहरत और बदनामी है। शाम ढलने के बाद नीचे दुकानों के शटर गिरने लगते हैं, ऊपर की मंजिलों के झरोखे रोशन होने लगते हैं। झरोखों से इशारे करती लड़कियाँ बता देती हैं जी. बी. रोड की रुसवाई का चर्चा क्यों है। शाम के बाद कमला मार्केट चौक से खारी बावली तक की गई यात्रा याद रह जाती हैं।
रिक्शेवाले इस रोड की समझ लीजिए जान हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, कमला मार्केट, नया बाजार, सदर बाज़ार सब मिलाकर इधर करीब एक हजार रिक्शेवाले होंगे। वैसे जबसे चांदनी चौक में रिक्शे का चलना बंद हुआ है तबसे इन इलाकों में रिक्शेवालों की तादाद बढ़ गई है। जी. बी. रोड के जीवन से गहरा रिश्ता है इन रिक्शेवालों का है। शाम ढलने के बाद ज्यादातर कस्टमर इन पर सवार होकर ही आते हैं। दिन के वक्त इन कोठेवालियों का सबसे बड़ा सहारा भी रिक्शेवाले ही बनते हैं। यह दिलचस्प है कि औरतों के इतने बड़े बाजार होने के बावजूद यहाँ एक ब्यूटी पार्लर तक नहीं है। दिन के वक़्त ऊपर रहने वाली औरतें उतरती हैं और चुपचाप इन्हीं रिक्शों पर सवार होकर पुरानी दिल्ली के दूसरे बाजारों में सौदा-सुलुफ करने के लिए निकल जाती हैं। उन बाजारों में जहाँ उनको कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता। आसपास के उन दुकानों, बाजारों में वे नहीं दिखाई देती हैं जो उनके ही दम से चल रही हैं। सब्जी तक खरीदने के लिए वे सीताराम बाजार जाती हैं। कम से कम चार किलोमीटर दूर। एक हनुमान मंदिर, चार मस्जिद होने के बावजूद ये कोठेवालियाँ इबादत के लिए भी यहाँ के इबादतखानों में नहीं जातीं। उनके भगवान भी यहाँ से दूर ही बसते हैं
वैसे बाजार सीताराम से दुकानदारी के उनके इस रिश्ते की कहानी पुरानी दिल्ली वाले दूसरी ही बताते हैं। बीसवीं शताब्दी की आजादी के कुछ साल पहले तक आज कागज़ वगैरह के बड़े बाजार के रूप में प्रसिद्ध चावड़ी बाजार में तवायफ़ों का कोठा था। आज भी चावड़ी बाजार के ऊपरी मंजिलों के झरोखों को देखकर सहसा जी. बी. रोड के कोठों की याद जाती है। वैसे ही झरोखे, वैसी ही झिरियाँ। तब सीताराम बाजार के पास होने से वहाँ की तवायफ़ों को सीताराम बाजार में जाने की आदत पड़ गई। बाद में सरकार ने जिस्म के इस बाज़ार को आबादी से दूर थोक बाजारों के इस गोल में लाकर बसा दिया। पचास-साठ साल हो गए, पीढ़ियाँ आईं-गईं, लेकिन सीताराम बाजार जाने की आदत नहीं गई। आपने भी सुना होगा पुरानी आदतें जाती नहीं हैं।
बाहर से आने वाले यहाँ गर्दन ऊपर उठाकर चलते हैं, लेकिन यहाँ की कोठेवालियाँ रिक्शे पर बैठकर गर्दन झुकाए गुजर जाती हैं।अपनेमुहल्लेवालों से शायद शर्म आती हो। कई बार जब कोई लड़की कोठे से भागती है तो अक्सर इन्हीं रिक्शों पर सवार होकर निकल जाती है। पिछले दिनों जब अखबार में यह खबर पढ़ी कि जी. बी. रोड के इलाके में दो पुलिस वालों की हत्या हो गई और पुलिस वालों ने हत्यारों की तलाश में सारे इलाके को घेर लिया था। एक अखबार में लिखा था पुलिसवालों का झगड़ा कोठा नंबर ६४ में हुआ था। कोठा नंबर ६४ का जिक्र पढ़कर पिछले साल की रिक्शा यात्रा और रिक्शेवाले से हुई बात याद गईसबसे नामी कोठा है ६४ नंबर। वहाँ तो एसी भी है, विदेशी कस्टमर आते हैं। वैसे ज्यादा काले विदेशी ही होते हैंअफ्रीका वाले। वहाँ का रेट भी हाई है! कोठा नंबर ६४ जी. बी. रोड के हाई-फाई कल्चर का प्रतीक है।
असल में बीस इमारतों और ९६ कोठों वाले इस बाजार में अमीर-गरीब की खाई है। कमला मार्केट की तरफ रिक्शे पर करीब आधी दूरी तय करने के बाद हनुमान मंदिर आता है। कोठा नंबर ६४ उसके बाद पड़ता है। हनुमान मंदिर के दूसरी तरफ की कोठेवालियों की ठसक कुछ ज्यादा है क्योंकि उनमें ज्यादातर गोरी लड़कियाँ धंधा करती हैंजी. बी. रोड पर धंधे के लिए लाई जाने वाली लड़कियों में बड़ी तादाद नेपाल, आसाम से आई लड़कियों की है, उनमें से अधिकतर हनुमान मंदिर के दूसरी ओर के कोठों में पाई जाती हैं। उनकी तलाश में इधर शहर के रईसजादों की आमदरफ्त भी लगी रहती है। रिक्शे पर बैठकरमंदिर के इधर वाली बाइयों का रेट कम से कम २०० तक भी हो सकता है तो मंदिर के उधर की गोरी लड़कियाँ एक-एक ग्राहक से दो-दो हजार तक वसूल लेती हैं। कोठा नंबर ६४ से ध्यान आया करीब दो साल पहले पुलिस ने जी. बी. रोड पर छापा मारकर करीब दो सौ कमसिन लड़कियों को मुक्त करवाया था। सबसे ज्यादा ४० नेपाली लड़कियाँ कोठा नंबर ६४ से मुक्त करवाई गई थीं। तब एक रिक्शेवाले ने ही इलाके में काम करने वाले एक एनजीओ को उस कोठे में रहने वाली कम उम्र की लड़कियों के बारे में बताया था, शक्तिवाहिनी नामक उस संस्था के दबाव पर ही पुलिस ने कोठों पर छापा मारा था।
इंटरनेट और मोबाईल फोन के इस दौर में ज़िस्म का व्यापार भी हाईटेक हो गया है। जी. बी. रोड पर भी इसका असर पड़ रहा है। यहाँ धीरे-धीरे रिक्शेवालों की मिल्कियत खत्म होती जा रही है। अब ऑटोरिक्शा की आमद इस इलाके में बढ़ने लगी है। कोठेवालियाँ मोबाईल पर कस्टमर से सौदा तय करती हैं और बन-संवरकर ऑटो में सवार होकर किसी अनजान स्थान के लिए निकल पड़ती हैं। अब यहाँ आना ग्राहकों के लिए पहले जैसा निरापद नहीं रहा। जी. बी. रोड गांजा, चरस, स्मैक जैसे नशीले पदार्थों के अवैध व्यापार का भी बड़ा सेंटर बन चुका है। इसकी वजह से यहाँ अपराध की घटनाएँ बढ़ने लगी हैं। पहले कस्टमर के जान-माल का ध्यान कोठेवालियाँ और उनके दलाल रखते थे क्योंकि उनसे ही उनकी रोजी-रोटी चलती है। अब दलाल ही उनको लूटने लगे हैं। इसलिए लोग यहाँ आने से घबड़ाने लगे हैं। लड़कियों के लिए भी बाहर जाना फायदे का सौदा लगने लगा है। एसी रूम मिलता है, अच्छा पैसा मिलता है। इसलिए उनके व्यापार को अब रिक्शेवालों से अधिक अधिक ऑटोवाले भइया भाने लगे हैं। वे ही उनके लिए कस्टमर भी तय करते हैं, उनको गाड़ी में बिठाकर ले जाते हैं, फिर वापस भी छोड़ जाते हैं।
लेकिन ऑटो में वह मज़ा कहाँ जो रिक्शे में है। रिक्शे पर बैठकर तो खुला आसमान दिखाई देता, झरोखे से झांकती, इशारे करती लड़कियाँ भी। रिक्शे पर बैठकर यहाँ से गुजरने का खयाल बुरा नहीं हैशाम के बादजब हार्डवेयर बाजार बंद होने लगता हैनशेड़ियों, भिखमंगों, पुजारियोंव्यापारियों, ठेलेवाले, चाट-खोमचेवालों की भीड़ और उनके बीच टुनटुन घंटी बजाकर जगह बनाता रिक्शा

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