About Me

My photo
मैं कम बोलता हूं, पर कुछ लोग कहते हैं कि जब मैं बोलता हूं तो बहुत बोलता हूं. मुझे लगता है कि मैं ज्यादा सोचता हूं मगर उनसे पूछ कर देखिये जिन्हे मैंने बिन सोचे समझे जाने क्या क्या कहा है! मैं जैसा खुद को देखता हूं, शायद मैं वैसा नहीं हूं....... कभी कभी थोड़ा सा चालाक और कभी बहुत भोला भी... कभी थोड़ा क्रूर और कभी थोड़ा भावुक भी.... मैं एक बहुत आम इन्सान हूं जिसके कुछ सपने हैं...कुछ टूटे हैं और बहुत से पूरे भी हुए हैं...पर मैं भी एक आम आदमी की तरह् अपनी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट नही हूं... मुझे लगता है कि मैं नास्तिक भी हूं थोड़ा सा...थोड़ा सा विद्रोही...परम्परायें तोड़ना चाहता हूं ...और कभी कभी थोड़ा डरता भी हूं... मुझे खुद से बातें करना पसंद है और दीवारों से भी... बहुत से और लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं बहुत अकेला हूं... मैं बहुत मजबूत हूं और बहुत कमजोर भी... लोग कहते हैं लड़कों को नहीं रोना चाहिये...पर मैं रोता भी हूं...और मुझे इस पर गर्व है क्योंकि मैं कुछ ज्यादा महसूस करता हूं!आप मुझे nksheoran@gmail.com पर ईमेल से सन्देश भेज सकते हैं.+919812335234,+919812794323

Saturday, December 18, 2010

प्रदर्शन छोड़िए, हमारी खेल भावना तो देखिए श्रीमान्

और लो साहब, दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही टीम पहले ही टेस्ट में ढह सी गई। हालांकि अभी दूसरी पारी बाकी है। लेकिन दिग्गज तू आया मैं चल की तरह एक के बाद एक चल ही दिए। क्यों भई...टीम इंडिया नहीं जानती क्या कि पूरा देश आंखें दताए बैठा है टीवी के सामने...बस इन्हीं मौकों पर देश बड़ा कसकर आध्यात्मिक हो जाता है। एक लौ सी लगा लेता है...लागी तुमसे मन की लगनटाइप।



खेल तो बाबू अच्छा ही रहे थे...एक हताशा सी तारी हो जाती है देश पर, गुरू अभी लक्ष्मण ठोकेगा देखना...फिर भी एक उम्मीद कायम रहती है। खैर, खेल छोड़िए, इस खेल के पीछे छुपी खेल की आध्यात्मिकता पर चलिए एक नजर डालते हैं...टीम खराब खेल रही है तो क्या तुम क्यों आशाएं लगाए हो...फिर देखो तो आशाएं खुद लगाते हो बोझ हम पर डाल देते हो...कितना बोझ उठाएं....अपेक्षाओं का, सालभर तो दनादन ठोकते रहते हैं रन देश में इतने से मन नहीं भरता आपका कि दक्षिण अफ्रीका की सीरिज देखने दते हो.. ये नहीं देखते कि हम पर कितना बोझा है...






इस विचार के साथ देश दुखी हैं...खिलाड़ी दुखी हैं... दोनों ही गमगीन रहने के खेल में लगे हैं। हालांकि खिलाड़ी तो फिर भी 10-12 एड, कुछ रियलटी शो, एकाधा फैशन शो में रैंप पर चलने जैसा कुछ करके अपने गम भुलाएंगे। लेकिन देशवासी फालतू के चिंतन में लगातार जुटे रहेंगे। खिलाड़ी से सीख नहीं लेंगे जो ऐसी स्थति आने या हारने के कुछ देर बाद ही भूल जाते हैं। हार की पीड़ा को सीने से चिपकाए गली-चौराहे-पान की दुकानों पर चर्चान्वित नहीं रहते।






लेकिन भिया मेरा तो मानना है कि हमें हार से इतर खेल भावना पर विचार करना चाहिए। हमारे खिलाड़ी कितने सीधे-सच्चे होते हैं। देश के लिए खेलते समय परमार्थ की कैसी जबर्दस्त भावना दिखाते हैं। बैटिंग करते समय सोचते हैं कि ले भाई, तेरी खुशी मेरे जल्दी आउट होने में है, तो कर ले मुझे आउट, बस खुश। हालांकि गेंद भी तो पता नहीं सामने वाले कितनी तेज फेंकते हैं।






गोली सी दनदनाती मुंह के सामने से निकल गई अभी मुंह पे चोट लग जाती तो अगला विज्ञापन...और फिर देखो तो हाथ की हड्डियां जाने कहां से ऑर्डर देकर बनवाते हैं। हम तो पता नहीं इतनी तेज गेंदें फेंक दें, तो चौथ ओवर के बाद ठीक से स्ट्रेचर पर भी लेट पाएंगे कि नहीं। उधर, मैदान में खिलाड़ी भी लगातार एड मनी का जोड़-घटाना करता रहता है। प्रायोजकों की अपेक्षाओं की चिंता करता रहता है। इसी प्रताप से तो कई टूटे-फूटे पड़े हैं। इसके बावजूद भी भावना देखिए हमारेवालो की, सारा जोर सामने वाले को खुश रखने में लगाए रहते हैं।






खिलाड़ियों की विनम्रता पर भी अलग से नजर डालिए आप, मजाल है कि कभी इस बात का एहसान जताएं। आपके ज्यादा जोर देने पर ही चट्टान जैसी पिच पर दोष लगाना शुरू करते हैं कि नहीं?, ज्यादा पूछने पर ही तो अपने कोच पर आरोप मंढते हैं कि नहीं? बहुत ज्यादा ही सवाल किए जाते हैं तभी ना सही बताते हैं कि क्या करें वो शॉर्ट पिच गेंदें डाल रहा था, उसकी मेहनत का सम्मान तो करना ही था। फील्डर भी कुछ ज्यादा ही जुझारू दिख रहा था।






मैदान पर लोट-लोट कर बॉल रोक रहा था। कई बार समझाया भी कि क्यों भाई ऐसा क्या कि जान देते पड़े हो, पेंट भी नया बनवाया दिखता है, लेकिन इतने समझाने का असर भी नहीं, तो क्या करें, फिर मजबूरी में उसका भी सम्मान रखना पड़। ऐसे शॉट लगाने पड़े कि उसे गेंदों के लिए मैदान पर भूलुंठित होने की जरूरत ही ना पड़े, सारे शॉट सीधे उसके हाथ में जाएं। उसका सम्मान न करें, रन बनाएं, ऐसा हमसे न हो पाएगा। तो ऐसी है हमारे वालों की उदार भावना।






ऐसे ही सामनेवालो की बल्लेबाजी के दौरान हम नितांत दार्शनिक हो जाते हैं। शत्रु पक्ष का समझकर भी तेरी तरफ मित्रवत् गेंद फेंकी है-का भाव रखते हैं। (हालांकि जोर तो पूरा लगाया था, इससे ज्यादा तेज गई ही नहीं) फिर गेंद फेंक दी है, तू कर ले मनमानी, जैसी उदारता भी रखते हैं। अब सामने वाला निर्ममता से प्रहार करता रहता है, तूफानी शतक ठोक देता है...तो क्या करें।






कई बार धीरे से उसके पास जाकर समझाते भी हैं, अब बस कर रे, हमारी आईपीएल की टीम में आने के लिए इतना ही काफी है। और अगर पहले से है तो भी समझाते हैं कि बढ़ावा देंगे रे तेरा मेहनताना अगली बार जरा सबर तो कर ले....लेकिन कई बार हमारी अंग्रेजी या उसकी श्रवण शक्ति कमजोर होने के कारण यह बात वो ठीक-ठाक तरीके से शायद समझ नहीं पाता है, और रन ठोकता रहता है।






हम तो पूरे प्रयास करते हैं, अब हमारी किस्मत से वो बहरा निकल आया, क्या करें जी। और ऐसे ही ये इतने मंहगे नए पैंट क्या बॉल घिसने या जमीन पर लोटने के लिए बनवाए हैं। अब क्या अंतरराष्ट्रीय मैचों के स्तर पर आकर भी वो गंवारों जैसा जमीन पर ऊंचे-नीचे कूदते रहें। नईं, आप ही बताओ? अरे, वो बात अलग थी, जब देश की टीम में आना था। तब पैंट सस्ता था, इच्छाशक्ति मजबूत थीं।






ऊपर से देश के लिए खेलने का जज्बा अलग हिलोरे मार रहा था। अब क्या यहां आकर भी मैचों जैसा गंवारूपना करते दिखें। टीवी पर ये सब करते अच्छा नहीं लगता भिया। तो इस तरह से इतने गहन दर्शन के तहत हमारे वाले उन्हें जिता देते हैं। आप फिजूल में टीम की हार के गम में गलते रहते हो।

No comments:

Post a Comment