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मैं कम बोलता हूं, पर कुछ लोग कहते हैं कि जब मैं बोलता हूं तो बहुत बोलता हूं. मुझे लगता है कि मैं ज्यादा सोचता हूं मगर उनसे पूछ कर देखिये जिन्हे मैंने बिन सोचे समझे जाने क्या क्या कहा है! मैं जैसा खुद को देखता हूं, शायद मैं वैसा नहीं हूं....... कभी कभी थोड़ा सा चालाक और कभी बहुत भोला भी... कभी थोड़ा क्रूर और कभी थोड़ा भावुक भी.... मैं एक बहुत आम इन्सान हूं जिसके कुछ सपने हैं...कुछ टूटे हैं और बहुत से पूरे भी हुए हैं...पर मैं भी एक आम आदमी की तरह् अपनी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट नही हूं... मुझे लगता है कि मैं नास्तिक भी हूं थोड़ा सा...थोड़ा सा विद्रोही...परम्परायें तोड़ना चाहता हूं ...और कभी कभी थोड़ा डरता भी हूं... मुझे खुद से बातें करना पसंद है और दीवारों से भी... बहुत से और लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं बहुत अकेला हूं... मैं बहुत मजबूत हूं और बहुत कमजोर भी... लोग कहते हैं लड़कों को नहीं रोना चाहिये...पर मैं रोता भी हूं...और मुझे इस पर गर्व है क्योंकि मैं कुछ ज्यादा महसूस करता हूं!आप मुझे nksheoran@gmail.com पर ईमेल से सन्देश भेज सकते हैं.+919812335234,+919812794323

Monday, December 5, 2011

हमारे मास्टर जी और उनका निकर

आज भी याद आती है मुझे अपने स्कूल के दिनों की। गढ़वाल की एक सुंदर सी पहाड़ी के ऊपर एक समतल स्थान पर था हमारा जूनियर हाई स्कूल (आठवीं तक) , तीन तरफ से छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ। अच्छा ख़ासा मैदान बना था। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पेड़, सामने उत्तर में विशाल हिमालय। दक्षिण में जंगल, जहां काफल, बांज, बुरान्स के लाल लाल मन मोहक फूल। जैसे कुदरत ने अपनी सारी संपदा यहीं आकर बिखेर दी हो। चार बजे स्कूल की छुट्टी होती थी, जिन बच्चों के घर नज़दीक थे वे तो अपने घर चले जाते थे, जो दूर से आते थे वे वहीं राशन-पानी और बिस्तरा के साथ आते थे और वहीं स्कूल में ही रहते थे।

हेड मास्टर जी के साथ एक अंग्रेज़ी के सर भी रहते थे। हमारे हेड मास्टर जी का नाम था गेन्दा राम। कहते हैं जब वे पैदा हुए थे, उस समय उनके घर के बाहर कुछ लड़के गेंद खेल रहे थे। गेंद उछल कर उनके पास आकर रुक गयी थी। बस उनके पिता जी ने उनका नाम उसी समय गेन्दा राम रख दिया था। उनके पास एक फ़ौजी निकर थी, जो उन्हें उनके दादा जी ने दी थी। जो फौज में हवलदार मेजर थे और वॉलीबॉल खेलते थे। उनकी दिली इच्छा थी कि मेरा पोता बड़ा होकर वॉलीबॉल और मेरा नाम रोशन करे।

जिस दिन से उनके दादा जी ने उन्हें यह निकर उन्हें दिया था उसी दिन से उन्होंने वॉलीबॉल खेलना शुरू किया। निकर उनके घुटनों से नीचे तक आती थी। उनके दादा तो खूब मोटे तगड़े थे, लेकिन मास्टर गेंदराम जी दुबले-पतले थे। पेट कमर जैसे उनकी थी ही नहीं। फिर भी शाम को रोज स्कूल बंद होते ही वे निकर पहन कर वॉलीबॉल नेट पर खड़े हो जाते थे। निकर ढीली थी, डोरी से कमर पर कस कर बांध देते थे। अमूमन वे नेट पर बॉल मारते थे और उन्हें मारने के लिए उछलना पड़ता था। जैसे ही वे उछलते थे उनकी निकर नीचे आ जाती थी और वे उछलकर उसे ऊपर खिसका देते थे।

हमेशा ऐसा ही होता था और एक दिन, जैसे मास्टर जी ने बॉल मारी और निकर ऊपर खिसकाने लगे, तभी नेट पर बॉल फिर आ गई। उन्होंने निकर छोड़ कर उछाल मारी और बॉल नेट के पार। पॉइंट मिल गया, लेकिन मास्टर गेन्दा राम जी का निकर, रस्सी सहित नीचे धरती पर आ गिरा। खूब ताली बजी, मास्टर जी ने भी बजाई। दर्शकों ने मास्टर जी की निकर को और मास्टर जी ने गेम जीतने को।

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